
वोह, मैं आज भिन्न हूं……
सच्चाई निजी होती हैं
स्वार्थ से हट कर परे होती है
परिस्थितियों तो निपटती होती है
समाज के पर्दों में सच्चाई छिपी होती है।
कौन सच्चाई जानना चाहता है,
कौन किसी का दर्द मांजना चाहता है,
कौन अपने समाज को उबारना चाहता है,
वासना का हवश से शिकार
कर, पश्चाताप कर इसांनियत का पाठ सीखना चाहता है।
किसने यह नाम परिभाषित किया है
किसी ने ही शायद मन से इस राह को चुना है
समाज की इस दलदल में अब
यह व्यवसाय हो चला है
भीख मागनें से बेहतर जीवनयापन का दस्तूर हो चला है।
कभी इस प्रवृत्ति से छुटकारा हो पायेगा
कभी हर मानुष एक सभ्य
प्राणी हो पायेगा,
कब सफेदपोशी का चलन
बंद हो पायेगा
कहते हैं यह चलन बहुत पुराना है, इतिहास ही इसका हल बतायेगा।
आओ अपने बलबूते पर अपने
पांवों पर खड़े हों,
चाहे आत्मरक्षा के शारीरिक दांव
पेच सीखने हों,
एकला चलो रे, मन बनाकर अब
चल देना है,
सामाजिक न्याय हमें दृढ़ निश्चय
और आत्मविश्वास से प्रयास करते
रहना है।
लेखक : शैलेंद्र क र विमल ।