मनुष्य की सभी परेशानियों और दुर्गति का मुख्य कारण उसकी अभिलाषा है। इच्छा पूरी होती है तो सुख अनुभव होता है और इच्छा की आपूर्ति में दुःख महसूस होता है और यदि कामनाएं पूरी नहीं होती है तो मानव के अंदर क्रोध जन्म लेता है। दुख का मूल कारण हमारी आवश्यकताएं नहीं हमारी इच्छाएं है। इच्छाएं कभी पूरी नहीं हो पातीं और एक इच्छा पूरी होने के बाद दूसरी कामनाएं उत्पन्न हो जाती है। हमारी आवश्यकताएं तो कभी पूर्ण भी हो सकती है लेकिन अभिलाषाएं मानव जीवन से कभी नहीं जाती है। जब मनुष्य अपनी इच्छाओं को अनियंत्रित और असीमित बना लेता है, तो वह असंतोष, तनाव और दुख का शिकार हो जाता है। भौतिक सुख-सुविधाओं, धन-संपत्ति, और प्रतिष्ठा की अभिलाषा उसे हर समय बेचैन रखती है।
असंतोष के कारण मनुष्य अपने कर्तव्यों से भटकता है
इच्छाएं पूरी न होने पर निराशा उत्पन्न होती है और पूरी होने पर नई इच्छाओं का जन्म हो जाता है, जिससे यह चक्र कभी समाप्त नहीं होता। इसी असंतोष के कारण मनुष्य अपने कर्तव्यों से भटक जाता है और अनैतिकता, छल, या अन्य अनुचित साधनों का सहारा लेता है। यह न केवल उसकी मानसिक शांति छीन लेता है, बल्कि उसके जीवन को भी दुर्गति की ओर ले जाता है। इस प्रकार, संतुलित इच्छाओं और संतोष का अभ्यास ही मनुष्य को सुख और शांति प्रदान कर सकता है।
कहा गया है कि ‘माया मरी न मन मरा, मर-मर गय शरीर। आशा तृष्णा ना मरी कह गए दास कबीर‘ इसका अर्थ है कि शरीर, मन, माया सब नष्ट हो जाता है परन्तु मन में उठने वाली आशा और तृष्णा कभी नष्ट नहीं होती, इसलिए संसार की मोह, तृष्णा आदि में नहीं फंसना चाहिए।
मनुष्य भौतिकता की ओर न भागे
जो मानव परमपिता परमेश्वर से अपने को जोड़ता है वही सुखी रहता है। ईश्वर से जुड़ना वास्तव में मनुष्य को सच्चे सुख और शांति का अनुभव कराता है। यह सिद्धांत लगभग सभी धर्मों और दर्शन में पाया जाता है, जो यह बताते हैं कि ईश्वर से संबंध स्थापित करना आत्मिक उन्नति और आंतरिक संतोष का मार्ग है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मन की शांति के लिए भौतिकता की ओर न भागे, क्योंकि भौतिक सुख-सुविधाएं केवल क्षणिक आनंद देती हैं। धन, संपत्ति, और सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति से मन को स्थायी शांति नहीं मिल सकती। इसके विपरीत, मनुष्य को अपनी आत्मा के मूल स्रोत, उस निराकार ब्रह्म को याद करना चाहिए, जो अनंत शांति और आनंद का सच्चा माध्यम है।
सत्संग का मार्ग अपनाने से कम होती है भौतिक इच्छाएं
अभिलाषा से मुक्ति पाने के लिए सेवा और सत्संग का मार्ग अपनाना सबसे प्रभावी उपाय है। सेवा का अर्थ है निस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई के लिए कार्य करना। जब मनुष्य अपने स्वार्थ और इच्छाओं को छोड़कर परोपकार और दूसरों की सहायता में समय लगाता है, तो उसकी भौतिक इच्छाएं स्वतः ही कम होने लगती हैं। इसी प्रकार, सत्संग का अर्थ है ईश्वर की भक्ति, साधु-संतों के संग और पवित्र विचारों का आदान-प्रदान। सत्संग में बिताया गया समय व्यक्ति के मन को शुद्ध करता है और उसे ईश्वर की ओर प्रेरित करता है। यह दोनों ही मार्ग व्यक्ति को अभिलाषाओं के बंधन से मुक्त कर उसे सच्चे सुख और शांति का अनुभव कराते हैं। सेवा और सत्संग के माध्यम से मनुष्य जीवन के असली उद्देश्य को समझ सकता है और आत्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है।
फ़ूडमैन विशाल सिंह की कलम से