“हिंदूजम” शब्द का उपयोग भारत के सांस्कृतिक, धार्मिक, और दार्शनिक दृष्टिकोण को एकत्रित रूप से वर्णित करने के लिए किया जाता है। यह शब्द मुख्यतः पश्चिमी विद्वानों द्वारा “हिंदू धर्म” को परिभाषित करने के लिए प्रचलित हुआ। हालांकि, भारत में इसे “सनातन धर्म” या “वैदिक धर्म” के नाम से जाना जाता था। “हिंदू” शब्द का कोई एकल स्रोत नहीं है, बल्कि यह कई ऐतिहासिक और भौगोलिक संदर्भों से विकसित हुआ है।
हिंदू शब्द का उद्भव
“हिंदू” शब्द का पहला उल्लेख लगभग 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व के पर्शियन अभिलेखों में मिलता है। पर्शियन लोग सिंधु नदी को “हिंदू” कहते थे। सिंधु घाटी में रहने वाले लोगों को उन्होंने “हिंदू” कहा। यह नाम भौगोलिक था और किसी धर्म विशेष का प्रतीक नहीं था।
इस शब्द का प्राचीन उपयोग
पर्शिया और अरब के यात्रियों ने भारतीय उपमहाद्वीप के निवासियों को “हिंदू” कहा। धीरे-धीरे यह शब्द भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा बन गया। 8वीं शताब्दी के बाद, इस्लामी आक्रमणों के दौरान “हिंदू” शब्द का उपयोग भारत में रहने वाले गैर-मुस्लिमों के लिए किया जाने लगा।
हिंदूजम के रूप में धर्म का स्वरूप
हिंदू धर्म का कोई संस्थापक या एकल धार्मिक ग्रंथ नहीं है। यह एक जीवन पद्धति है, जो वेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत, रामायण जैसे शास्त्रों से प्रेरणा लेती है।
हिंदू धर्म के चार प्रमुख स्तंभ हैं:
- धर्म: नैतिक और धार्मिक कर्तव्य।
- अर्थ: जीवन यापन के साधन।
- काम: इच्छाओं की पूर्ति।
- मोक्ष: आत्मा की मुक्ति।
हिंदू नाम का आधिकारिक उपयोग
15वीं और 16वीं शताब्दी में मुगलों और यूरोपीय व्यापारियों के आगमन के साथ “हिंदू” शब्द का व्यापक उपयोग शुरू हुआ। ब्रिटिश शासन के दौरान, “हिंदू धर्म” शब्द को एक विशिष्ट धार्मिक पहचान देने का प्रयास किया गया।
हिंदूजम का वैश्विक प्रभाव
आज “हिंदूजम” केवल भारत तक सीमित नहीं है। यह विश्व के कई हिस्सों में जीवन पद्धति, योग, ध्यान, और वेदांत के रूप में फैल चुका है। इसके सहिष्णु और सार्वभौमिक सिद्धांत इसे दुनिया के सबसे प्राचीन और जीवंत धर्मों में से एक बनाते हैं।
निष्कर्ष : हिंदूजम न केवल एक धर्म है, बल्कि यह जीने की एक कला और दर्शन है। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मा का उत्थान और ब्रह्मांड के साथ सामंजस्य स्थापित करना है। यह वसुधैव कुटुंबकम (संपूर्ण विश्व एक परिवार है) के विचार को आत्मसात करता है। जैसा कि भगवद गीता में कहा गया है:-
“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।” अर्थात ,जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मा और परमात्मा का मिलन है।
लेखक: श्री अशोक सिंह (संपादक)